धनंजय इरा की तरफ ध्यान से देख रहा था जैसे ही इरा ने फोन रखा उसने पूछा “क्या बात है…”
इरा ने धनंजय को लतिका का बताया एक एक शब्द बता दिया, धनंजय सोचते हुए बोला, “शायद गुप्ता सर को इसका आभास हो गया था तभी हम लोगों को बच्चियों के बारे में सब कुछ बता दिया था और इसीलिए उन्होंने उन्हें हॉस्टल भेज दिया था”
“सबसे पहले तो मैं बालिका सदन के बारे में पता करता हूँ, फिर सोचते हैं क्या करें।”
“जो भी करना है हमें जल्दी करना होगा पता नहीं मीरा किस हालत में है” इरा ने बेचैन होकर कहा।
“चिंता मत करो, मीरा एक दो दिन में हमारे साथ होगी” धनंजय ने इरा को आश्वासन दिया।
धनंजय पूरे दिन न जाने किस किस को फोन करता रहा और फिर देर रात को उसने इरा को बताया कि बालिका सदन का पता चल गया है।
मंगलवार को सुबह लगभग साढ़े बारह बजे बालिका सदन के सामने एक सफेद रंग की गाड़ी आकर रुकी, गाड़ी रुकते ही सहायक ने उतर कर गाड़ी का दरवाजा खोला जिसमें से इरा उतरी, उसने देखा सामने पुरानी सी एक मंजिला बिल्डिंग थी जगह जगह से मकान का प्लास्टर उखड़ा हुआ था, एक क्षण रुककर इरा ने प्रवेश किया। अंदर एक मध्य आयु की एक महिला कुछ काम कर रही थी, इरा को देख कर वो पास आ गई, “कहिये क्या काम है”
इरा ने उसे गौर से देखा और बोली “मुझे एक बच्ची गोद लेनी है किसी ने बताया था कि यहाँ से बच्ची ले सकती हूँ।”
“आप अंदर चले जाओ सामने ही मैडम जी का ऑफिस है वो आपको सब बता देगीं”
इरा अंदर चली गयी मध्यम आकार का कमरा था जिसमें एक बड़ी मेज थी, चार पाँच कुर्सियां रखी थी, एक तरफ टेलीफोन रखा था, पीछे की साइड एक अलमारी थी जिसमें बेतरतीब ढंग से फाइलें भरी पड़ी थी, सामने कुर्सी पर बैठी हुई महिला उठ खड़ी हो गयीं।
इरा ने कहा “मैं एक बच्ची एडाप्ट करना चाहती हूँ, मेरे एक परिचित ने यहां का पता बताया था।”
“मेरा नाम ऊषा है मैं यहां का काम देखती हूँ, आप मुझे बतायें क्या आप शादीशुदा हैं?”
“जी हाँ मैं अभी सिर्फ बच्चियों को देखने आयी हूँ, पसंद आने पर मैं और मेरे पति यहाँ आकर सारी फार्मेलिटी पूरी कर बच्ची को एडाप्ट कर लेगें।”