लतिका की छुट्टियाँ खत्म हो रही थी, वो बेहद परेशान थी उसे लग रहा था मीरा ठीक नहीं है पर कैसे पता चले। लतिका वापस हॉस्टल चली गयी, उसका मन किसी काम में नहीं लग रहा था।
लतिका को याद आया जब पिताजी उसे और मीरा को हॉस्टल छोड़कर गये थे तो उन्होंने उससे कहा था, “लतिका मीरा का ध्यान अपनी सगी बहन की तरह रखना, दोनों अच्छी तरह रहना और एक दूसरे का ख्याल रखना”
उस वक्त लतिका अपने पिताजी की बात को नहीं समझी थी पर अब लग रहा था कि पिताजी के शब्दों का गहरा अर्थ था।
परीक्षाएं शुरू हो गयीं थी, पर लतिका का मन ठीक नहीं था,उसके पेपर अच्छे नहीं हुए थे बड़े बेमन से उसने परीक्षा दी थी।
जब लतिका घर जाने की तैयारी कर रही थी तभी लतिका के पास संदेश आया कि उसका फोन है, लतिका को लगा कहीं मीरा का फोन तो नही है वो दौड़ती हुईऑफिस पहुंची और रिसीवर उठाकर बेसब्री से बोली “हैलो!”
“लतिका …” दूसरी तरफ एक कमजोर और सहमी सी आवाज ने कहा।
लतिका मीरा की आवाज फौरन पहचान गई।
“दीदी तुम कहाँ हो?” लतिका ने मीरा से पूछा
“लतिका मुझे बचा लो वरना मैं मर जाऊंगी।”
“तुम हो कहाँ!?”
“मैं नहीं जानती बस इतना जानती हूँ जहाँ मैं हूँ उस जगह का नाम बालिका सदन है ये एक पुराना सा घर है…”
“दीदी मैं कुछ करती हूँ… तुम चिंता न करना”
उधर से फोन कट गया था।
लतिका ने सोचा क्यों न मां से बात करूं, लेकिन नहीं अगर मां ने ही मीरा दीदी को वहां छोड़ा हो तो, नहीं माँ से नहीं तो फिर किसे कहूं
काश पिताजी होते तो ये सब कुछ होता ही नहीं। हां पिताजी ने कहा था कि मैं उनकी सहायिका से बात कर सकती हूं उनका नाम क्या बताया था पिताजी ने ….धनंजय और इरा त्रिवेदी