धीरे धीरे वक्त गुजरता रहा, लतिका मीरा को लेकर बेहद फिक्रमन्द थी। दीपावली की छुट्टियों में जब लतिका घर आई तो वो मीरा से नाराज़ थी, कि मीरा दी खुद भी तो मुझसे बात कर सकती थीं अब मैं भी मीरा दी से बात नहीं करूंगी ।
परन्तु घर पहुंचते ही वो मीरा के कमरे की तरफ भागी मीरा के कमरे के पास पहुंच कर लतिका ठिठक गयीं मीरा का कमरा बंद था, मीरा का कुछ भी सामान वहां नहीं था और कुछ भी ऐसा नहीं था जिससे पता चले कि मीरा यहां रहती थी ऐसा लग रहा था जैसे मीरा कभी यहां थी ही नहीं।
लतिका हैरान थी कि मीरा थी कहाँ, उसने विमलादेवी से मीरा के बारे में पूछा तो विमलादेवी ने उससे कहा कि मीरा की कोई रिश्तेदार आई थीं जिनके साथ मीरा चली गयी।
कहाँ चली गयी, किस जगह ले गयीं वो मीरा दी को, लतिका ने जानने की कोशिश की।
“मुझे नहीं पता, न ही मैंने पूछा, बेहतर है तुम भी अपने काम से काम रखो” विमलादेवी ने रूखी आवाज़ में जवाब दिया।
मीरा के बारे में कुछ भी पता नहीं चल रहा था लतिका परेशान थी किस तरह वो मीरा के बारे में पता करे। जैसे जैसे दिन बीत रहे थे लतिका की बेचैनी बढ़ती जा रही थी, अगर मीरा अपनी मर्जी से अपने किसी रिश्तेदार के साथ गयी थी तो उसने लतिका को एक बार भी फोन क्यों नहीं किया पिछले तीन महीनों में मीरा का न तो कोई समाचार था न कोई खत मिला था, उसका दिल ये मानने को तैयार नहीं था कि मीरा ठीक थी और उसे भूल गई थी।
कुछ तो गड़बड़ थी लेकिन क्या यही लतिका नहीं समझ पा रही थी।