देखते देखते हफ्ता कैसे बीत गया पता ही नहीं चला। छुट्टियाँ बिता कर सब घर लौट आये, मीरा और लतिका की अभी बीस दिन की छुट्टियां बची थी परन्तु गुप्ता जी काम में व्यस्त हो गये थे। विमलादेवी सुरेंद्र को लेकर चिंतित थी, गुप्ता जी सुरेंद्र को लेकर अभी भी नाराज़ थे।
गुप्ता जी ने सुरेंद्र को बाहर भेजने का फैसला कर लिया था, विमलादेवी भी पति से सहमत थी वे सोचती थीं कि बाहर जाकर सुरेंद्र में जरूर सुधार होगा उसका संगसाथ भी बदल जायेगा तो वो भी सुधर जायेगा।
सारी तैयारियां हो चुकी थीं, गुप्ता जी ने विमलादेवी को बताया कि लड़कियों की भी छुट्टियां खत्म हो रहीं हैं, तो सुरेंद्र को पहुंचा कर दोनों बेटियों को भी हॉस्टल छोड़ आयेंगे।
जाने से दो दिन पहले अचानक रात को गुप्ता जी के सीने में तेज दर्द
हुआ और जब तक डॉक्टर आता गुप्ता जी सबको छोड़कर जा चुके थे।
मीरा और लतिका का रो रोकर बुरा हाल था, विमलादेवी पहले ही कम
बोलती थीं अब तो बिल्कुल ही खामोशी अख्तियार कर ली थी।
सुरेंद्र पहले की तरह हर बात से बेखबर रहता था जब कोई जरूरत होती तो माँ के पास आता, वरना अपने में ही खुश रहता।
सारे रिश्तेदार और नातेदार जा चुके थे घर में सन्नाटा फैल गया था
दुख का माहौल इस कदर था कि मीरा और लतिका घंटों चुपचाप बैठी रहतीं थीं किसी को किसी की सुध नहीं थी।
एक दिन विमलादेवी ने दोनों लड़कियों को अपने कमरे में बुलाया और लतिका से कहा, “तुम अब हॉस्टल चली जाओ, मीरा अब यहीं रहेगी”
“लेकिन…माँ मीरा दीदी को तो अभी …” लतिका ने कुछ बताना चाहा
परन्तु विमलादेवी ने हाथ उठाकर रोक दिया, “तुम तैयारी कर लो, सुरेंद्र तुम्हें छोड़ आयेगा”