पाश्चात्य दर्शन 7 (सुकरात)…

सुकरात(socrates)-470-399ई.पू.- सुकरात का जन्म एथेंस में हुआ था,इनकी माता दाई का काम करती थींऔर इनके पिता शिल्प कार थे।
सुकरात देखने में आर्कषक नहीं थे,उनका जीवन एक ऋषि की भाँति था
वे इन्द्रियजित थे।उनके बारे में धर्मवाणी की गयी थी कि सुकरात सभी
मनुष्यों में सबसे अधिक बुद्धिमान हैं।सुकरात समझते थे कि वे सचमुच
अन्य लोगों से अधिक बुद्धिमान हैं, क्योंकि उन्हें अपनी अज्ञानता का ज्ञान था जबकि लोग अज्ञानी होते हुये भी अपने को ज्ञानी मानते हैं।
       उनपर युवाओं को बहकाने का अभियोग लगाया गया और उन्हें
विषपान द्वारा मृत्युदंड की सजा दी गयी।उनका वास्तविक अपराध
तत्कालीन प्रजातंत्र और नेताओं की पोल खोलकर उनके अज्ञान, दंभ और आडम्बर का प्रखर खंडन करना था।वे एक मास तक जेल में रहे,उनके मित्र और शिष्य उन्हें वहां से भगा ले जाने के लिये तैयार थे
परन्तु सुकरात ने अस्वीकार कर दिया और हंसते-हंसते विषपान कर लिया।
          सुकरात के दर्शन का ज्ञान उनके प्रधान शिष्य प्लेटो की कृतियों में उपलब्ध है। सामान्यों या विज्ञानों का सिद्धांत, इन्द्रियानुभूति और विज्ञान का भेद,विशुद्ध विज्ञान स्वरूप शिवतत्व और आत्मा की अमरता
आदि सिद्धांत मूल रूप में सुकरात के सिद्धांत कहे जा सकते हैं, जिनका प्लेटो ने विकास किया।
        सुकरात ने स्पष्ट रूप से तत्व के विज्ञान स्वरुप का प्रतिपादन किया और उसे दर्शन का केंद्र बना दिया। सुकरात ने प्रथम बार इस विज्ञान को नैतिक जीवन का भी आधार बनाया। प्लेटो ने सुकरात के विज्ञानवाद या साम्यवाद के बारे में ‘फीडो’ नामक अपनी कृति में भी कहा है।
         ज्ञान के विषय सामान्य हैं और इन्द्रियानुभव के विषय विशेष या व्यक्ति हैं। सत्य ज्ञान इन सामान्यों का ही ज्ञान है।विशेषों का ज्ञान केवल
व्यवहार है।विशेषों की सत्ता सामान्य में भाग लेने के कारण है।
        हमारा सांसारिक ज्ञान इन्द्रियानुभूति पर र्निभर है और इन्द्रियानुभूति दिव्य विज्ञानों पर आवरण डाल देती है।इन्द्रियों पर विजय
प्राप्त करके हम शरीर में रहते हुये उससे र्निलिप्त अशरीर बन सकते हैं
और आत्मज्ञान द्वारा दिव्य विज्ञानों का साक्षात्कार कर सकते हैं।
           सुकरात के दिव्य विज्ञान एक सूत्र में बद्ध हैं, यह सूत्र इन विज्ञानों का भी विज्ञान हैं, यह परम विज्ञान हैं इस परम विज्ञान को सिम्पोजियम में विशुद्ध सौन्दर्य और रिपब्लिक में विज्ञान स्वरूप शिवतत्व कहा गया है।यह शिवतत्व समस्त दिव्य विज्ञानों में और उसके द्वारा समस्त जगत में अनुस्यूत है यह परम तत्व है और इसका साक्षात्कार मानव जीवन का लक्ष्य है।
        सुकरात के दर्शन की पद्धति द्बंदात्मक तर्क की है,प्रश्नोत्तर की पद्धति है उनकी दार्शनिक पद्धति का लक्ष्य लोगों को अपने अज्ञान का
ज्ञान कराकर उनकी स्वानुभूति की ओर अग्रसर करने का था।सुकरात ने
दर्शन को विज्ञानों का विज्ञान माना है,दर्शन का लक्ष्य विशुद्ध विज्ञानस्वरूप तत्व का साक्षात्कार है।ज्ञान ही धर्म है शिवतत्त्व का ज्ञान
सबसे उत्तम धर्म है, अज्ञान अधर्म है।वास्तविक धर्म तो ज्ञान है जिसकी प्राप्ति होने पर अधर्म हो ही नहीं सकता।

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